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पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में 24 जवानों की बेरहमी से हत्या के दो दिन बाद ही बिहार के जमुई जिले में एक गांव में तांडव मचाकर नक्सलियों ने हमारी शासन व्यवस्था को खुली चुनौती दी है। एक तरफ हम दुनिया की बड़ी महाशक्ति बनने का दावा करते हैं, दूसरी ओर हमारे घर में ही मौजूद मुट्ठी भर माओवादी हमें बार-बार हमारी ताकत का अहसास करा रहे हैं। सिकंदरा थाना क्षेत्र के कुरासी गांव में बुधवार रात 150 के करीब सशस्त्र नक्सलियों ने जिस तरह आगजनी, विस्फोट और गोलीबारी कर 12 निहत्थे लोगों को मौत के घाट उतार दिया, उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। उधर, झारखंड में भी नक्सलियों ने एक बीडीओ को अगवा कर रखा है, लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पा रही है।
विभिन्न राज्यों में नक्सलियों की बढ़ती ताकत और उनके पास आधुनिक हथियारों का होना इस बात की ओर साफ इशारा कर रहे हैं कि उनकी सांठगांठ कुछ ऐसी ताकतों के साथ हो चुकी है, जो भारत को अस्थिर करना चाहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में पिछले तीन वर्षों में आतंकी हमलों में कुल 436 लोग मारे गए हैं, जबकि नक्सली हमलों में मारे गए लोगों की संख्या 1,500 से ज्यादा है।
ऐसी स्थिति में अब भी नक्सलियों के हिंसा छोड़ने और वार्ता के माध्यम से समस्या का समाधान सोचने की बात बेमानी ही होगी। नक्सलियों ने तो माओ से एक ही बात सीखी है कि ताकत बंदूक की नली से आती है। अब समय रहते उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दिया गया तो देर हो जाएगी।
नक्सली समस्या ने भारत में संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर दिया है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि निहित स्वार्थ में कुछ बड़े नेता अकसर वामपंथियों के सुर में सुर मिलाते हुए नक्सलियों के लिए ढाल बनकर खड़े हो जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार के साथ-साथ रेल मंत्री ममता बनर्जी तो झारखंड में खुद मुख्यमंत्री शिबू सोरेन नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं चाहते। यह समय की मांग है कि सरकारों के साथ-साथ सभी दलों के नेता, जिनमें थोड़ी भी देशभक्ति बची है, अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर इस समस्या का हल तलाशें।
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